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भारत की सांस्कृतिक धरोहर देश की 5 प्रमुख साड़ियाँ

लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली भारतीय साड़ी केवल एक पारंपरिक पहनावा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है, जो अपने विविध डिजाइन और शिल्प कौशल के माध्यम से भारतीय परंपरा और इतिहास को जीवित रखती है। देश की विभिन्न साड़ियाँ न केवल अपने अद्वितीय फैब्रिक और डिजाइन के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि उनकी कीमत और निर्माण की प्रक्रिया भी उन्हें विशेष बनाती है।

गुजरात की पटोला साड़ी, जो शुभ अवसरों पर पहनने की परंपरा का हिस्सा है, अपनी विशेष डिजाइन और टिकाऊ फैब्रिक के लिए जानी जाती है। इस साड़ी की खासियत यह है कि इसे दोनों ओर से पहना जा सकता है और इसका फैब्रिक दशकों तक खराब नहीं होता। पटोला साड़ी की कीमत ₹2 लाख से ₹5 लाख तक हो सकती है, और इसकी परंपरा 12वीं शताब्दी के सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल से जुड़ी हुई है, जिन्होंने पटोला बुनने वालों को गुजरात के पाटन में बसाया था।

तमिलनाडु की कांजीवरम साड़ी भी भारतीय साड़ियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह साड़ी कांचीपुरम में शहतूत रेशम और सोने-चांदी के तारों से बनाई जाती है, और इसकी सुंदरता और भव्यता ने इसे 400 सालों से अधिक समय से लोकप्रिय बनाए रखा है। कांजीवरम साड़ी की कीमत ₹1 लाख से ₹10 लाख तक हो सकती है और इसका वजन 2 किलो तक पहुंच सकता है। इसे GI टैग प्राप्त है, जिससे इसकी विशुद्धता सुनिश्चित होती है।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी की बनारसी साड़ी, अपने चटकीले रंग और शानदार बुनाई के लिए प्रसिद्ध है। इस साड़ी में सोने और चांदी के तारों का भी इस्तेमाल होता है, और इसे बनाने में आमतौर पर 6 महीने का समय लग सकता है। बनारसी साड़ी की कीमत लाखों रुपये तक जा सकती है और इसे विशेष रूप से भारतीय शादियों में दुल्हन के लिए खरीदी जाती है। इसे भी GI टैग प्राप्त है, जो इसकी गुणवत्ता और परंपरा को प्रमाणित करता है।

लखनऊ की चिकनकारी साड़ी, अपनी जटिल कढ़ाई और महीन मखमल के कपड़े के लिए प्रसिद्ध है। चिकनकारी की कला का संबंध 16वीं शताब्दी के मुगल काल से है, जब बेगम नूरजहां ने इसे लखनऊ लाया था। पेस्टल शेड की चिकनकारी साड़ियाँ आज भी पारंपरिक कढ़ाई की सुंदरता और महत्व को बनाए रखती हैं और यह एक खास लुक देती हैं।

अंत में, महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी, जो शुद्ध रेशम और सोने-चांदी के तारों से बनाई जाती है, लगभग 8 हजार धागों के साथ महीनों में तैयार होती है। यह साड़ी कई पीढ़ियों तक चल सकती है और इसकी चमक सही देखभाल पर कभी कम नहीं होती। पैठणी साड़ी की शुरुआत दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के सातवाहन राजवंश के समय से मानी जाती है, और यह केवल राजघराने की महिलाओं द्वारा पहनी जाती थी।

ये सभी साड़ियाँ भारतीय शिल्प और सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती हैं, और विभिन्न राज्यों की परंपराओं और ऐतिहासिक महत्व को उजागर करती हैं। इनकी विविधता और विशिष्टता भारत की सांस्कृतिक अमूल्यता को प्रकट करती है, जो समय के साथ भी अपनी चमक और महत्व को बनाए रखती है।

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