Uttarakhand

UTTARAKHAND में थारू जनजाति पैरों से खाना परोसने की अनोखी परंपरा

उत्तराखंड, 7 नवंबर 2024: उत्तराखंड के हिमालय क्षेत्र में एक ऐसी अनोखी परंपरा का पालन किया जाता है, जिसे देख कर कोई भी हैरान रह जाए। आम तौर पर हम जानते हैं कि खाना हाथों से परोसा जाता है, लेकिन थारू जनजाति की यह परंपरा कुछ अलग ही है। इस जनजाति में खाना परोसने का तरीका पैरों से होता है, जो उनके इतिहास और संस्कृति से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी को दर्शाता है।

पैरों से खाना परोसने की परंपरा का इतिहास

थारू जनजाति की इस परंपरा का संबंध राजस्थान के इतिहास से जुड़ा हुआ है। यह परंपरा उस समय की है जब मुगलों ने राजस्थान पर आक्रमण किया था। उस युद्ध के बाद राजाओं ने अपनी रानियों और उनके सेवकों को बचाने के लिए उन्हें हिमालय क्षेत्र की तरफ भेज दिया था। उस समय राजाओं के साथ युद्ध में शामिल होने के कारण महिलाएं और उनके सेवक यह निर्णय लेने में सक्षम नहीं थे कि उन्हें कहां रहना है और क्या करना है।

काफी समय तक जब राजाओं का कोई पता नहीं चला और वे वापस नहीं लौटे, तो रानियों ने अपने सेवकों और दासों से विवाह करना शुरू कर दिया। हालांकि, रानियों ने जिन सेवकों और दासों से विवाह किया, उनका दर्जा हमेशा निम्न रहता था, और यह मानसिकता उनकी सोच में समाहित हो गई। यही वजह थी कि जब रानियां अपने घरवालों और सेवकों को खाना परोसने जातीं, तो उन्होंने उन्हें थाली को पैरों से सरकाकर दिया।

इतिहास से जुड़ा यह कृत्य

यह परंपरा शुरुआत में एक प्रकार की मानसिकता और वर्ग विभाजन का प्रतीक थी। रानियां चाहती थीं कि उनकी स्थिति और सम्मान बना रहे, लेकिन इसके बावजूद वे दासों और सेवकों से विवाह करने के बाद उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दे पा रही थीं। इस कारण, खाना परोसने का यह तरीका धीरे-धीरे जनजाति की संस्कृति का हिस्सा बन गया।

कुछ समय बाद यह परंपरा एक आदत के रूप में विकसित हुई और थारू जनजाति में इसे अपनाया गया। वे अब भी इस अनोखी परंपरा को बनाए हुए हैं और इसे एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक अभ्यास मानते हैं। इस परंपरा के बावजूद, इस कार्य को करने वाले लोग इसे बुरा नहीं मानते, बल्कि इसे सम्मान के रूप में स्वीकार करते हैं।

थारू जनजाति की संस्कृति और परंपराएं

थारू जनजाति उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है और उनकी संस्कृति का अपना एक विशेष स्थान है। यह जनजाति अपने अनूठे रीति-रिवाजों, रहन-सहन और परंपराओं के लिए जानी जाती है। थारू जनजाति के लोग आम तौर पर कृषि कार्य करते हैं और उनका जीवन जंगलों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा हुआ होता है।

थारू जनजाति की अन्य परंपराओं में उनकी भाषा, संगीत, नृत्य और विवाह रीति-रिवाज शामिल हैं। इसके अलावा, उनका खाना पकाने का तरीका और उनकी खानपान की आदतें भी बहुत ही दिलचस्प होती हैं। इन परंपराओं के जरिए वे अपने पूर्वजों को सम्मानित करते हैं और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखते हैं।

आज भी जीवित है परंपरा

आज के आधुनिक दौर में, जब अन्य क्षेत्रों में लोग अपनी पुरानी परंपराओं को छोड़ रहे हैं, थारू जनजाति इस परंपरा को जिंदा रखे हुए है। हालांकि, अब यह परंपरा केवल एक सांस्कृतिक अभ्यास बनकर रह गई है और इसका कोई सामाजिक दबाव नहीं है। इसे लोग एक विशेष रीति-रिवाज के रूप में अपनाते हैं, जो उनके इतिहास और परंपरा को जीवित रखने में मदद करता है।

इस परंपरा को देखने के लिए लोग अक्सर दूर-दूर से आते हैं और थारू जनजाति के रीति-रिवाजों और जीवनशैली के बारे में अधिक जानने की कोशिश करते हैं। हालांकि, यह परंपरा अब उतनी कड़ी नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी, लेकिन फिर भी यह जनजाति की पहचान के रूप में बनी हुई है।

थारू जनजाति की आज की स्थिति

आज के समय में, थारू जनजाति का जीवन काफी हद तक बदल चुका है, लेकिन उनकी सांस्कृतिक पहचान अभी भी जीवित है। अब, ये लोग सरकार की योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं और अपनी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और विकास के अन्य पहलुओं में भी उन्होंने काफी प्रगति की है।

उनकी जीवनशैली अब भी पारंपरिक तरीकों से जुड़ी हुई है, लेकिन आधुनिकता के साथ सामंजस्य बनाने का प्रयास भी देखा जा रहा है। थारू जनजाति की महिलाएं अब अपनी पारंपरिक परिधानों और कामकाजी तरीकों के साथ-साथ शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।

परंपरा और संस्कृति का संतुलन

जहां एक तरफ थारू जनजाति अपनी परंपराओं को बनाए हुए है, वहीं दूसरी तरफ वे अपनी संस्कृति को आधुनिक संदर्भ में भी परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज में बदलते हुए समय के साथ, थारू लोग अपनी पुरानी परंपराओं को सम्मान देने के साथ-साथ नए विचारों और बदलावों को भी अपनाने में रुचि रखते हैं।

यह परंपरा, जो कभी एक मानसिकता का प्रतीक थी, आज एक सांस्कृतिक धरोहर बन गई है। यह न केवल थारू जनजाति की पहचान को दर्शाता है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाता है कि परंपराएं समय के साथ बदल सकती हैं, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना और उन्हें सम्मानित करना कभी नहीं बदलना चाहिए।

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