Uttarakhand

इगास बग्वाल उत्तराखंड का त्योहार, साहस और विरह की कहानी

इगास बग्वाल, जो उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में मनाया जाता है, एक जीवंत त्योहार है, जिसमें साहस, विरह और अंधकार पर प्रकाश की विजय की कहानियाँ समाहित हैं। इस त्योहार को लेकर कई कथाएँ और किंवदंतियाँ हैं, लेकिन इसका असली सार केवल दो पंक्तियों में छिपा हुआ है। ये पंक्तियाँ हैं:

“बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।”

इन पंक्तियों का अर्थ है: “बारह बग्वाल चली गईं, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध हो गए, लेकिन माधो सिंह का कोई पता नहीं चला।”

इन शब्दों में गढ़वाल के लोगों का पूरा दुःख और वेदना व्यक्त होती है। माधो सिंह, जो एक वीर योद्धा थे, तिब्बत के साथ युद्ध के बाद लौटे नहीं थे। लोग उनके सुरक्षित वापसी का इंतजार करते-करते थक गए थे। इस दुःख के बीच, इगास बग्वाल के रूप में उनकी वापसी का जश्न मनाया गया, जो कई महीनों की अनिश्चितता और शोक के बाद हुआ।

माधो सिंह भंडारी की कहानी: वह वीर योद्धा जो युद्ध में गया था

युद्ध का आह्वान: तिब्बत के साथ संघर्ष

इगास बग्वाल की कहानी लगभग 400 साल पुरानी है, जब महाराजा महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बत से यह दुखद समाचार आया कि बिथवाल बंधुओं की हत्या कर दी गई थी। इस अत्याचार पर महाराजा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने माधो सिंह भंडारी को तिब्बत पर आक्रमण करने का आदेश दिया।

माधो सिंह, जो गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों से थे, ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर से योद्धाओं को बुलाकर एक बड़ी सेना तैयार की और तिब्बत की ओर मार्च किया। कठिन रास्तों और खतरनाक हालातों में भी उन्होंने युद्ध किया और तिब्बती सेना को हराया। युद्ध में जीत के बाद, माधो सिंह ने तिब्बती राजा पर कर लगाया और क्षेत्र की सीमा को अपने कब्जे में लिया।

युद्ध के बाद: एक रहस्यमयी गुमशुदगी

युद्ध जीतने के बाद, माधो सिंह और उनकी सेना ने वापसी की राह पकड़ ली। लेकिन हिमालय की बर्फीली पहाड़ियों में बर्फीले तूफानों ने उनके रास्ते को अवरुद्ध कर दिया। कई हफ्तों तक माधो सिंह या उनकी सेना के बारे में कोई खबर नहीं मिली। अफवाहें फैलने लगीं कि सभी योद्धा बर्फ में फंसकर मारे गए थे। गढ़वाल के लोग, विशेषकर वे जिन्होंने अपने प्रियजनों को युद्ध में भेजा था, गहरे शोक में डूब गए।

जब तक माधो सिंह की कोई सूचना नहीं आई, लोग दीपावली भी नहीं मना पाए। शोक के इस समय में, उत्सव मनाना असंभव सा लगने लगा था।

माधो सिंह की वापसी: एक प्रेम कहानी और वीरता की विजय

माधो सिंह की वापसी: पुनर्मिलन और इगास की शुरुआत

कहानी का मोड़ तब आता है जब माधो सिंह, बर्फीले तूफानों को पार कर आखिरकार उच्छनंदन गढ़ पहुँचते हैं। वहाँ उनकी मुलाकात होती है, गढ़पति की सुंदर बेटी उदिना से। उनकी प्रेम कहानी भी युद्ध जितनी ही रोमांचक और दिलचस्प है। हालांकि, उदिना की शादी किसी और से तय हो चुकी थी, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।

उदिना की शादी से एक दिन पहले, माधो सिंह एक नर्तक के रूप में विवाह समारोह में शामिल होते हैं, जहां वह अपने जौनसारी योद्धाओं को साथ लेकर नृत्य प्रस्तुत करते हैं। जब उदिना ने माधो सिंह को देखा, तो वह उसे पहचान गई। माधो सिंह ने इशारा किया और नृत्य में इस्तेमाल की गई तलवारें चमकने लगीं, जिससे यह संकेत मिला कि वह उसे भगाने आए हैं। इस प्रकार, माधो सिंह ने उदिना को लेकर भागने का निर्णय लिया और वे दोनों सुरक्षित स्थान पर पहुँच गए।

इगास का जश्न: उम्मीद और सहनशीलता का त्योहार

माधो सिंह की वापसी के बाद, गढ़वाल के लोग उन्हें नायक के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी जीत और सुरक्षित वापसी, साथ ही उदिना को बचाने की कहानी, पूरे क्षेत्र में छा गई। जिन लोगों के प्रियजन युद्ध में गए थे, उन्होंने न केवल माधो सिंह की वापसी का जश्न मनाया बल्कि जीवन, प्रकाश और खुशी के लौटने का भी उत्सव मनाया। इस प्रकार, इगास बग्वाल का जन्म हुआ, जो दृढ़ता, प्रतिकूलताओं पर विजय और आशा की विजय का प्रतीक बन गया।

इगास बग्वाल की परंपराएँ: सांस्कृतिक धरोहर का अद्भुत रूप

रीति-रिवाज: मिठे करेले और भैलो

इगास बग्वाल अपनी अनोखी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें भोजन और अग्नि का विशेष स्थान है। इगास में बनाए जाने वाले कुछ खास व्यंजन हैं, जैसे मिठे करेले (मीठे करेला) और लाल बासमती चावल का भात। ये व्यंजन एकादशी के दिन, दीपावली के अगले दिन बनाए जाते हैं और इन्हें समृद्धि और शुभता का प्रतीक माना जाता है।

त्योहार में भैलो नामक एक बड़ा अलाव भी जलाया जाता है, जो चीड़ के पेड़ की लकड़ी से तैयार किया जाता है। यह लकड़ी बेहद ज्वलनशील होती है और इसे समुदाय के लोग मिलकर इकट्ठा करते हैं। भैलो का मतलब होता है “वह जो प्रकाश लाता है” या “वह जो अंधकार पर विजय प्राप्त करता है”। यह प्रतीक है अच्छाई की बुराई पर विजय का।

भैलो: प्रकाश और विजय का प्रतीक

भैलो केवल एक अलाव नहीं होता, बल्कि यह त्योहार का मुख्य आकर्षण होता है। कहा जाता है कि जो इसे उठाता है, उसे आध्यात्मिक शक्ति मिलती है और उस समुदाय को पूर्वजों से आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस अलाव के चारों ओर लोग इकट्ठा होते हैं, गाते, नाचते और अंधकार को मात देते हुए खुशी और उम्मीद की आभा फैलाते हैं।

इगास बग्वाल और इसकी पौराणिक जड़ें

रामायण और महाभारत से जुड़ी कथाएँ

इगास बग्वाल की उत्पत्ति भी प्राचीन भारतीय मिथकों से जुड़ी हुई मानी जाती है। एक कथा के अनुसार, यह त्योहार श्रीराम के अयोध्या लौटने की कहानी से जुड़ा है। जब श्रीराम लंका विजय के बाद 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो उत्तराखंड के लोग इस समाचार को 11 दिन बाद सुन पाए। इस कारण उन्होंने दीवाली 11 दिन बाद मनाई, और यह इगास बग्वाल के रूप में विकसित हुआ।

महाभारत से भी एक जुड़ी हुई कथा है। महाभारत काल में, भीम को एक राक्षस से युद्ध करने का सामना करना पड़ा था। युद्ध जीतने के बाद पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था, जिसे इगास बग्वाल के रूप में मनाया जाता है।

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