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ब्रिटिश राज में सुल्ताना डाकू: कोटद्वार से खूनीबड़ तक की कहानी

Sultana Daku सुल्ताना डाकू का खौफ और उसका इलाका

बीसवीं सदी की शुरुआत में, उत्तर भारत के नजीबाबाद, कोटद्वार और कुमाऊं क्षेत्र में सुल्ताना डाकू का नाम आतंक का पर्याय बन गया था। उसका प्रभाव इतना व्यापक था कि लोग उसके नाम से ही कांप उठते थे। सुल्ताना ने नजीबाबाद के किले पर कब्जा कर लिया था, जो नवाब नजीबुद्दौला द्वारा 1755 में बनवाया गया था। Wikipedia

सुल्ताना की एक अनोखी विशेषता थी कि वह डकैती से पहले अपने शिकार को चिट्ठी भेजकर आगाह करता था। यह परंपरा उसके आत्मविश्वास और साहस को दर्शाती है। उसकी योजना और रणनीति इतनी सटीक होती थी कि वह हर बार सफलतापूर्वक लूट को अंजाम देता था।

जमींदार उमराव सिंह और सुल्ताना की भिड़ंत

कोटद्वार-भाबर क्षेत्र के प्रसिद्ध जमींदार उमराव सिंह के साथ सुल्ताना की टकराव की कहानी प्रसिद्ध है। 1915 से 1920 के बीच, सुल्ताना ने उमराव सिंह को चिट्ठी भेजकर लूट की चेतावनी दी। उमराव सिंह ने इसे चुनौती के रूप में लिया और पुलिस को सूचना देने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने नौकर को चिट्ठी के साथ कोटद्वार थाने भेजा।

रास्ते में, दुर्गापुरी के पास, सुल्ताना और उसके साथी नहा रहे थे। वे पुलिस की वर्दी जैसी पोशाक में थे, जिससे नौकर भ्रमित हो गया और चिट्ठी उन्हें दे दी। चिट्ठी पढ़कर सुल्ताना क्रोधित हो गया और सीधे उमराव सिंह के घर पहुंचकर उन्हें गोली मार दी। उनकी लाश को गांव के बड़ के पेड़ पर टांग दिया गया, जिससे गांव का नाम ‘खूनीबड़’ पड़ गया।

नजीबाबाद का किला और सुल्ताना का कब्जा

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नजीबाबाद का किला, जिसे ‘पत्थरगढ़ किला’ भी कहा जाता है, सुल्ताना का मुख्य ठिकाना था। यह किला नवाब नजीबुद्दौला द्वारा 1755 में बनवाया गया था और अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है।

कहा जाता है कि सुल्ताना ने इस किले में अपने लूट के खजाने को छिपाया था। कई लोगों का मानना है कि उसने किले की दीवारों में सोना छिपाया था, जिससे दीवारों को नुकसान पहुंचा है।

सुल्ताना की रणनीति और ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया

sultana daku hd

सुल्ताना की गतिविधियों से परेशान होकर, ब्रिटिश सरकार ने उसे पकड़ने के लिए एक विशेष अभियान चलाया। 1923 में, फ्रेडी यंग के नेतृत्व में 300 सिपाहियों और 50 घुड़सवारों की टीम ने कई छापेमारी की। अंततः, 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया गया।

नैनीताल की अदालत में ‘नैनीताल गन केस’ के तहत सुल्ताना पर मुकदमा चला और उसे फांसी की सजा सुनाई गई। 8 जून 1924 को, हल्द्वानी की जेल में उसे फांसी दी गई।

Sultana Daku सुल्ताना की विरासत और लोककथाएं

सुल्ताना डाकू की कहानी आज भी उत्तर भारत के गांवों में जीवित है। उसे एक रॉबिन हुड के रूप में देखा जाता है, जिसने अमीरों से लूटकर गरीबों में बांटा। उसकी दयालुता और न्यायप्रियता के किस्से आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

सुल्ताना की कहानी पर कई किताबें और फिल्में भी बनी हैं, जो उसकी बहादुरी और करुणा को दर्शाती हैं। उसकी विरासत आज भी लोगों के दिलों में जीवित है।

खूनीबड़ गांव और सुल्ताना की क्रूरता

उत्तराखंड के भाबर क्षेत्र में स्थित खूनीबड़ गांव का नाम सुनते ही एक डरावनी कहानी याद आती है। कहा जाता है कि इस गांव का नाम ‘खूनीबड़’ इसलिए पड़ा क्योंकि यहां एक बड़ के पेड़ पर सुल्ताना डाकू अपने मारे गए शिकारों को टांग देता था। इस क्रूरता का उद्देश्य लोगों में भय पैदा करना था, ताकि उसकी दहशत बनी रहे।

इस गांव की लोककथाओं में बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू ने कई निर्दोष लोगों को मारकर उस बड़ के पेड़ पर टांग दिया था। यह पेड़ आज भी गांव में मौजूद है और स्थानीय लोग इसे ‘खूनी बड़’ के नाम से जानते हैं। इस पेड़ की छाया में खड़े होकर लोग आज भी उस समय की भयावह घटनाओं को याद करते हैं।

सुल्ताना की इस क्रूरता का मुख्य उद्देश्य था लोगों में डर पैदा करना, ताकि कोई उसके खिलाफ जाने की हिम्मत न कर सके। उसकी यह रणनीति सफल भी रही, क्योंकि लंबे समय तक लोग उसके नाम से कांपते थे।

उधर, जमींदार उमराव सिंह ने भाबर क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई लोगों को इस क्षेत्र में बसाया और खेती-बाड़ी के लिए जमीन उपलब्ध कराई। उनके प्रयासों से भाबर क्षेत्र में कई गांव बसे, जिनमें से एक गांव का नाम ‘उमरावपुर’ रखा गया, जो आज भी मौजूद है।

सुल्ताना की गिरफ्तारी और न्यायिक प्रक्रिया

सुल्ताना डाकू की गिरफ्तारी एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने उसके आतंक के युग का अंत किया। 1923 में, ब्रिटिश अधिकारी फ्रेडी यंग ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक विशेष अभियान चलाया। इस अभियान में प्रसिद्ध शिकारी और संरक्षणवादी जिम कॉर्बेट ने भी मदद की। कई महीनों की मेहनत के बाद, 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद के जंगलों से गिरफ्तार किया गया।

सुल्ताना के साथ उसके चार प्रमुख साथी—पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए। गिरफ्तारी के बाद, सुल्ताना को नैनीताल की अदालत में पेश किया गया, जहां उस पर ‘नैनीताल गन केस’ के तहत मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में उसे फांसी की सजा सुनाई गई।

8 जून 1924 को, हल्द्वानी की जेल में सुल्ताना को फांसी दी गई। उस समय उसकी उम्र लगभग 30 वर्ष थी। फांसी से एक दिन पहले, सुल्ताना ने ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल सैमुअल पियर्स को अपनी जीवन कहानी सुनाई, जिसे बाद में ‘द कन्फेशन ऑफ सुल्ताना डाकू’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया।

इस पुस्तक में सुल्ताना ने बताया कि उसने कभी किसी गरीब से एक पैसा भी नहीं लूटा। उसका उद्देश्य केवल अमीरों को लूटना और गरीबों की मदद करना था। इसलिए, कई लोग उसे ‘भारतीय रॉबिन हुड’ के नाम से जानते हैं।

सुल्ताना की गिरफ्तारी और फांसी के बाद, उसके किले की खुदाई भी की गई, लेकिन वहां कोई खजाना नहीं मिला। हालांकि, आज भी नजीबाबाद में उसका किला मौजूद है, जो उसकी कहानी की गवाही देता है।

इस प्रकार, सुल्ताना डाकू की कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसने अपने समय में आतंक फैलाया, लेकिन साथ ही गरीबों के लिए एक मसीहा भी बना। उसकी कहानी आज भी लोगों के बीच जीवित है, जो उसे एक डाकू नहीं, बल्कि एक नायक के रूप में याद करते हैं।

जिम कॉर्बेट की किताब में “इंडिया का रॉबिन हुड” के रूप में वर्णन

जिम कॉर्बेट, जो अपने वन्यजीवों पर लिखी पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध हैं, ने अपनी किताब ‘माय इंडिया’ में सुल्ताना डाकू को “इंडिया का रॉबिन हुड” कहा है। उन्होंने लिखा है कि सुल्ताना ने कभी भी गरीबों से एक पैसा भी नहीं छीना। वह गरीबों के लिए एक मसीहा था और जब भी उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया। यह दर्शाता है कि सुल्ताना का उद्देश्य केवल लूटपाट नहीं था, बल्कि वह समाज में व्याप्त असमानताओं के खिलाफ एक प्रकार का विद्रोह था।

गरीबों से कभी न लूटना और दुकानदारों को दोगुना भुगतान

सुल्ताना डाकू की एक विशेषता यह थी कि वह गरीबों से कभी कुछ नहीं लेता था। जब भी वह किसी छोटे दुकानदार से कुछ खरीदता, तो वह उस सामान का दोगुना मूल्य चुकाता था। यह उसकी नैतिकता और गरीबों के प्रति उसकी सहानुभूति को दर्शाता है। उसका यह व्यवहार उसे अन्य डाकुओं से अलग करता है और उसे लोगों के दिलों में एक नायक के रूप में स्थापित करता है।

नजीबाबाद किले की सुरंग और खजाने की कहानियाँ

नजीबाबाद का किला, जिसे ‘सुल्ताना डाकू का किला’ भी कहा जाता है, सुल्ताना की गतिविधियों का मुख्य केंद्र था। यह किला 1755 में नवाब नजीबुद्दौला द्वारा बनवाया गया था और बाद में सुल्ताना ने इस पर कब्जा कर लिया। कहा जाता है कि सुल्ताना ने इस किले में एक सुरंग बनवाई थी जो नजीबाबाद पुलिस थाने तक जाती थी। इस सुरंग का उपयोग वह पुलिस से बचने और अपने हथियारों को छुपाने के लिए करता था। इसके अलावा, यह भी माना जाता है कि सुल्ताना ने अपने लूटे हुए खजाने को इसी किले में छुपाया था। हालांकि, कई बार खुदाई के बावजूद यह खजाना कभी नहीं मिला।

1956 और 1972 में बनी फिल्मों में सुल्ताना की झलक

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सुल्ताना डाकू की कहानी ने फिल्म निर्माताओं को भी आकर्षित किया। 1956 में मोहन सिन्हा द्वारा निर्देशित ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म बनी, जिसमें शीला रमानी और पाईडी जयराज ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। इसके बाद, 1972 में मोहम्मद हुसैन द्वारा निर्देशित ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म आई, जिसमें दारा सिंह, हेलेन और अजीत खान ने अभिनय किया। इन फिल्मों में सुल्ताना को एक नायक के रूप में दिखाया गया, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ता है और गरीबों की मदद करता है। इन फिल्मों ने सुल्ताना की छवि को और भी लोकप्रिय बना दिया और उसे एक लोकनायक के रूप में स्थापित किया।

निष्कर्ष

सुल्ताना डाकू की कहानी केवल एक डाकू की नहीं है, बल्कि यह उस समय के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य की भी झलक देती है। उसकी नैतिकता, गरीबों के प्रति सहानुभूति, और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उसका विद्रोह उसे एक विशेष स्थान देता है। जिम कॉर्बेट की किताब, नजीबाबाद किले की कहानियाँ, और फिल्मों में उसका चित्रण, सभी मिलकर सुल्ताना डाकू की छवि को एक लोकनायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आज भी उसकी कहानियाँ लोगों के बीच जीवित हैं और वह भारतीय इतिहास में एक प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के रूप में याद किया जाता है।

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