Uttarakhand

छूट प्रथा: जब जौनपुर की महिलाएं खुद तय करती हैं अपना जीवनसाथी

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के जौनपुर(Jaunpur) क्षेत्र में सदियों से एक अनोखी परंपरा जीवित है, जिसे छूट प्रथा(Chhoot Pratha) कहा जाता है। यह परंपरा महिलाओं को अपने पति से तलाक लेने और पुनः विवाह करने का कानूनी और सामाजिक अधिकार देती है।

जहां भारत के अन्य हिस्सों में तलाक और पुनर्विवाह आज भी सामाजिक कलंक समझे जाते हैं, वहीं जौनपुर की महिलाएं खुलकर अपने रिश्तों के बारे में फैसला लेती हैं।

क्या है छूट प्रथा? (What is Chhoot Pratha in Jaunpur?)

‘छूट’ का मतलब होता है — स्वतंत्रता। और यहां इसका अर्थ है, एक महिला को अपने पति से तलाक देने की सामाजिक और कानूनी मान्यता

यह प्रथा उस समय की है जब भारत में महिलाओं के पास अपने अधिकारों की बात करने तक की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन जौनपुर की महिलाएं अगर किसी कारणवश अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं — चाहे वो दुर्व्यवहार हो, उम्र का बड़ा अंतर, मानसिक बीमारी, या व्यक्तिगत असहमति — तो उन्हें रिश्ते को खत्म करने का पूरा हक़ है।

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यानी शादी के बंधन में बंधने के बाद भी, अगर पति उपयुक्त नहीं है, तो पत्नी उसे सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त तरीके से छोड़ सकती है और दूसरी शादी कर सकती है।

लोकगीतों में झलकती है महिला की मुखरता (Women’s Voice in Folk Songs)

जौनपुर की इस सोच की झलक वहाँ के लोकगीतों में भी मिलती है। कई गीतों में ऐसे दूल्हों का ज़िक्र है जो नापसंद होते हैं — चाहे वो चरित्रहीन हों, बुज़ुर्ग हों, या अयोग्य। ये गीत एक औरत की भावनाओं को, उसकी असहमति और निर्णय की ताकत को व्यक्त करते हैं — और समाज उसे सुनता भी है।

कैसे होती है ‘छूट’?

जब कोई महिला अपने पति को छोड़ना चाहती है, तो वह अपने मायके लौट जाती है। कई बार पति या उसके घरवाले उसे मनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन अगर वह नहीं लौटती, तो उसके माता-पिता उसकी दोबारा शादी कराने की तैयारी शुरू कर देते हैं।

सबसे पहले एक इच्छित वर की तलाश होती है। फिर पंचायत बुलाई जाती है, जिसमें दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार होता है। अगर पंचायत को लगता है कि महिला का फैसला सही है, तो वह ‘छूट’ की अनुमति देती है।

‘छूट’ का नियम और भुगतान प्रणाली (Compensation System)

इस प्रथा का सबसे खास पहलू है पंचायत द्वारा तय की गई ‘राशि’, जो नया वर पहले पति को देता है। यह रकम एक तरह का मुआवज़ा या हरजाना मानी जाती है। यह राशि 5,000 रुपये से लेकर लाखों तक हो सकती है, और इसे सार्वजनिक रूप से तय किया जाता है।

इस प्रक्रिया का मकसद सिर्फ एक रिश्ता खत्म करना नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक रूप से स्वीकार्य और मर्यादित ढंग से समाप्त करना है, ताकि किसी पक्ष को अपमानित महसूस न हो।

महिलाओं को ‘सात घर’ तक जाने की स्वतंत्रता (Right to Remarry Upto 7 Times)

जौनपुर और आसपास के क्षेत्रों में महिलाओं को ‘सात घर’ तक विवाह करने की स्वीकृति है — यानी अगर पहले विवाह सफल नहीं रहा, तो उसे सात बार पुनर्विवाह करने की सामाजिक अनुमति है। इसे आज के सामाजिक नजरिए से देखें, तो यह बेहद प्रगतिशील सोच है।

जौनसार-बावर क्षेत्र में, इसी सोच के चलते पारंपरिक ‘फेरे’ की प्रथा तक नहीं थी। शादी के लिए वहां प्रतीकात्मक रूप से एक चादर ओढ़ा दी जाती थी, जो सहमति का प्रतीक मानी जाती थी। विधवाओं को भी यहां दूसरी शादी का पूरा अधिकार है, और यह कोई सामाजिक कलंक नहीं माना जाता।

क्यों जरूरी है ऐसी परंपराएं आज के समय में?

आज जब देशभर में महिलाओं के अधिकारों की बात की जाती है, तो जौनपुर की छूट प्रथा एक उदाहरण के रूप में सामने आती है, जहां समाज ने सदियों पहले ही महिलाओं को निर्णय लेने का हक़ दे दिया था।

यह सोच सिर्फ रिश्तों को स्वतंत्र रूप से जीने की आज़ादी नहीं देती, बल्कि बताती है कि एक समाज कितना सशक्त और आत्मनिर्भर हो सकता है, अगर वह अपनी बेटियों पर भरोसा करे।

निष्कर्ष

छूट प्रथा सिर्फ एक सामाजिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह महिला स्वतंत्रता, आत्मसम्मान और निर्णय लेने की क्षमता का प्रतीक है। जौनपुर की महिलाएं यह दर्शाती हैं कि रिश्ते सिर्फ निभाने के लिए नहीं होते, बल्कि उनमें खुशी, समानता और सम्मान भी होना चाहिए।

भारत जैसे देश में, जहां महिलाओं को अब भी अपने निर्णय के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जौनपुर की यह प्रथा एक उदाहरण है कि समाज अगर चाहे तो प्रगतिशील सोच को जड़ों से उगा सकता है।

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क्या छूट प्रथा आज भी जौनपुर में प्रचलित है?

हाँ, यह परंपरा अब भी जौनपुर के कुछ इलाकों में सामाजिक तौर पर मान्यता प्राप्त है।

छूट प्रथा में पंचायत का क्या रोल है?

पंचायत महिला और उसके पति दोनों का पक्ष सुनती है और समाज में विवाद रहित तरीके से निर्णय देती है।

क्या यह भारत के अन्य हिस्सों में मान्य है?

नहीं, यह सिर्फ स्थानीय स्तर पर स्वीकार्य है। देश के अन्य हिस्सों में यह प्रथा औपचारिक रूप से लागू नहीं है।

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