एफआरआई देहरादून: भारत की वानिकी धरोहर का इतिहास

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देहरादून की वादियों में एक भव्य संस्थान है — वन अनुसंधान संस्थान (Forest Research Institute – FRI), जिसे देख कर ऐसा लगता है जैसे कोई ब्रिटिश महल किसी हरे भरे बाग़ में खड़ा हो। लेकिन इसकी पहचान सिर्फ इसकी भव्यता नहीं, बल्कि इसकी वैज्ञानिक और ऐतिहासिक विरासत भी है।
एफआरआई सिर्फ एक संस्थान नहीं है — यह एक विचार है, एक आंदोलन है, जिसने भारत में वनों के प्रति सोच को पूरी तरह बदल दिया। आज जब हम जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और पारिस्थितिक असंतुलन जैसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम जानें कि भारत में वैज्ञानिक वानिकी (Scientific Forestry) की नींव कैसे पड़ी और एफआरआई ने इसमें क्या भूमिका निभाई।
ब्रिटिश काल और वैज्ञानिक वानिकी की शुरुआत
19वीं सदी का भारत अंग्रेजों के लिए सिर्फ व्यापार का केंद्र नहीं था, बल्कि संसाधनों की एक असीमित खान भी था। खासकर उत्तर भारत के घने जंगल अंग्रेजों के लिए सोने की खदान से कम नहीं थे। शुरुआत में इन वनों का दोहन बिना किसी योजना के किया गया — जहाजों के निर्माण के लिए, रेलवे के स्लीपरों के लिए और इमारतों की लकड़ी के लिए।

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लेकिन जल्द ही ब्रिटिश सरकार को समझ में आ गया कि अगर इस प्रक्रिया को वैज्ञानिक रूप नहीं दिया गया, तो वनों की यह संपदा बहुत जल्द खत्म हो जाएगी। यही वो समय था जब ब्रिटिश हुकूमत ने ‘वैज्ञानिक वानिकी’ की अवधारणा को जन्म दिया।
1855: पहला वन नीति प्रस्ताव
लॉर्ड डलहौजी ने 3 अगस्त 1855 को एक ऐतिहासिक मेमोरेंडम जारी किया, जिसमें पहली बार यह बात रखी गई कि जंगलों का दोहन ऐसे किसी भी रूप में नहीं किया जाएगा जिससे पर्यावरण या प्राकृतिक संतुलन को नुकसान पहुंचे। यह नीति आज की ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ सोच की शुरुआती झलक थी।
1864: इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट की नियुक्ति
1855 की नीति के बाद, 1864 में ब्रिटिश सरकार ने एक महत्वपूर्ण पद सृजित किया — Inspector General of Forests। इस पद का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार को जंगलों के संरक्षण और प्रबंधन पर सलाह देना। इस पद के लिए नियुक्त किए गए पहले अधिकारी थे — डॉ. डाइट्रीच ब्रैंडिस, जो जर्मनी से थे और वन विज्ञान में गहरी समझ रखते थे।
ब्रैंडिस को जल्द ही यह समझ में आ गया कि जंगलों को व्यवस्थित तरीके से प्रबंधित करने के लिए भारत को प्रशिक्षित वन कर्मचारियों की जरूरत है। और यहीं से शुरू हुई एक ऐतिहासिक पहल — वन प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना।
इम्पीरियल फॉरेस्ट स्कूल से एफआरआई तक की यात्रा
ब्रैंडिस ने जब भारत के वनों की स्थिति का अध्ययन किया तो उन्हें साफ दिखा कि भारतीय उपमहाद्वीप को वन प्रबंधन में प्रशिक्षित पेशेवरों की सख्त जरूरत है। ऐसे में 1878 में देहरादून में एक साधारण लेकिन उद्देश्यपूर्ण स्कूल खोला गया, जिसका मकसद था — रेन्जर्स और वन कर्मचारियों को ट्रेनिंग देना।

1884: इम्पीरियल फॉरेस्ट स्कूल का गठन
1878 में स्थापित स्कूल को 1884 में ब्रिटिश भारत की केन्द्रीय सरकार ने अपने अधीन ले लिया और इसे नया नाम मिला — Imperial Forest School। यह स्कूल अब केवल प्रशिक्षण का केंद्र नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य की वन नीति के क्रियान्वयन का आधार भी बन गया था।
1900–1906: संस्थागत रूप से शोध की शुरुआत
1900 तक इस स्कूल ने अपनी पहचान एक गुणवत्ता पूर्ण संस्थान के रूप में बना ली थी। 1906 में इसमें वन अनुसंधान (Forestry Research) को औपचारिक रूप से जोड़ा गया और इसे नया नाम मिला —
Imperial Forest Research College।
इस परिवर्तन ने न केवल संस्थान की प्रकृति बदली, बल्कि भारत में वन प्रबंधन की दिशा भी तय कर दी। अब यहाँ सिर्फ प्रशिक्षण नहीं होता था, बल्कि वनों की उत्पादकता, संरक्षण, और नई वन तकनीकों पर शोध भी शुरू हो गया।
5 जून 1906: एफआरआई की स्थापना
भारत सरकार ने 5 जून 1906 को इस संस्थान को एक पूर्ण अनुसंधान केंद्र के रूप में मान्यता दी और इसे कहा गया — Imperial Forest Research Institute। शुरुआती वर्षों में इसका नेतृत्व Inspector General of Forests ही करते थे, लेकिन 1908 में प्रशासनिक और शोध जिम्मेदारियाँ अलग कर दी गईं।
एफआरआई के गठन ने भारत में वानिकी को एक वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में स्थापित कर दिया। यहां से जो भी फॉरेस्ट ऑफिसर या शोधकर्ता निकलते थे, वो ब्रिटिश भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर वनों का प्रबंधन करते थे।
इस संस्थान ने एक ऐसी नींव रखी, जिस पर आज भारत की वन नीति और शोध आधारित वानिकी टिकी हुई है।
एफआरआई की वास्तुकला, फिल्मों से लेकर शोध तक
जब आप पहली बार एफआरआई (Forest Research Institute) देहरादून के परिसर में प्रवेश करते हैं, तो एक पल के लिए यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि आप उत्तर भारत के किसी शहर में हैं। विशाल गेट, हरे-भरे लॉन, और क्लासिकल यूरोपियन वास्तुकला की भव्य इमारत — ये सब मिलकर आपको ब्रिटिश राज की किसी शाही अकादमी का अनुभव कराते हैं। लेकिन यह जगह सिर्फ खूबसूरत इमारतों का संग्रह नहीं है — यह भारत के वन विज्ञान का केंद्र है।

वास्तुकला जो इतिहास को जीती है
एफआरआई की मुख्य इमारत का निर्माण ग्रीक-रोमन शैली में हुआ है। इसका डिज़ाइन ब्रिटिश आर्किटेक्ट सी. जी. ब्लूमफील्ड ने तैयार किया था। सात साल की मेहनत और करीब 90 लाख रुपये की लागत से बनी यह इमारत न केवल तकनीकी रूप से मजबूत है, बल्कि सौंदर्य के लिहाज़ से भी लाजवाब है।
यह इमारत 7 एकड़ क्षेत्र में फैली हुई है और कुल परिसर 450 हेक्टेयर में फैला है। मुख्य भवन की छतें, मेहराबें और स्तंभ हर उस दर्शक को आकर्षित करते हैं जो वास्तुकला की गहराई को समझते हैं।
7 नवंबर 1929 को इस भवन का उद्घाटन तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने किया था। यह एक ऐसा क्षण था जब भारत में वानिकी न सिर्फ वैज्ञानिक रूप से बल्कि स्थापत्य कला के रूप में भी अपना स्थान बना रही थी।
शोध का गढ़
एफआरआई को सिर्फ एक सुंदर इमारत कहना इसकी गहराई को छोटा करना होगा। यह संस्थान भारतीय वानिकी अनुसंधान का मक्का है। यहां विभिन्न विषयों पर शोध होता है, जैसे:
- वनों की जैव विविधता
- वनों का सामाजिक और आर्थिक मूल्य
- वनों के उत्पादों पर आधारित उद्योग
- पर्यावरणीय परिवर्तन और जलवायु संबंधी अध्ययन
- पौधरोपण और टिश्यू कल्चर
एफआरआई में कई अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं हैं, पुस्तकालय है जिसमें हजारों वन विषयक पुस्तकों और शोधपत्रों का संग्रह है, और एक विशाल हर्बेरियम भी है जिसमें वनस्पतियों के सैकड़ों नमूने संग्रहीत हैं।
फिल्मों की दुनिया में एफआरआई का जादू
अब बात करते हैं उस पहलू की जिसने एफआरआई को जनमानस में लोकप्रिय बना दिया — फिल्मों की शूटिंग।
एफआरआई का परिसर इतना सुंदर, शांत और यूनिक है कि यह कई बॉलीवुड और क्षेत्रीय फिल्मों के लिए परफेक्ट शूटिंग स्पॉट बन चुका है।
यहाँ फिल्माए गए कुछ प्रमुख नाम हैं:
- रहना है तेरे दिल में
- पान सिंह तोमर
- स्टूडेंट ऑफ द ईयर
- स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2
- कृष्णा कॉटेज
- कमरा नंबर 404
- महर्षि (तेलुगु फिल्म)
- यारा, डियर डैडी, दिल्ली खबर, जीनियस आदि।
फिल्म निर्माता एफआरआई की भव्य इमारत और प्राकृतिक परिवेश को कैमरे में कैद करने का सपना लेकर आते हैं। यहां शूट किए गए कॉलेज सीन्स, लाइब्रेरी सीन्स और क्लासरूम शॉट्स भारतीय सिनेमा के लिए एक नया स्टैंडर्ड बन चुके हैं।
कोविड के बाद भी एफआरआई प्रशासन को दर्जनों फिल्मों की शूटिंग के आवेदन मिले, लेकिन संस्थान की शैक्षणिक प्रतिबद्धताओं और अनुसंधान प्राथमिकताओं के कारण सभी को अनुमति नहीं दी जा सकी।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि एफआरआई न केवल एक ऐतिहासिक और सौंदर्यशास्त्रीय स्थल है, बल्कि एक गंभीर अकादमिक केंद्र भी है।
भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद की स्थापना
एफआरआई की कहानी सिर्फ अंग्रेज़ों तक ही सीमित नहीं रही। भारत की आज़ादी के बाद देश को एक ऐसे निकाय की ज़रूरत थी जो वानिकी अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार को एकीकृत कर सके — और इसी ज़रूरत से जन्म हुआ भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (ICFRE) का।
1986: राष्ट्रीय निकाय का गठन
साल 1986 में भारत सरकार ने यह निर्णय लिया कि देशभर के वानिकी शोध कार्यों को एक छत्र संस्था के तहत लाया जाएगा। इसका उद्देश्य था अनुसंधान, शिक्षा और प्रशिक्षण को एक ही दिशा में आगे बढ़ाना।
इसी साल, भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (Indian Council of Forestry Research and Education) की स्थापना की गई। इसे बाद में भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त निकाय घोषित किया गया।
संरचना और कार्य
ICFRE का मुख्यालय देहरादून में एफआरआई परिसर में ही स्थित है। इसके अधीन कुल 9 राष्ट्रीय संस्थान, 5 एडवांस रिसर्च सेंटर, और एक केंद्रीय पुस्तकालय व सूचना केंद्र संचालित होते हैं। ये सभी संस्थान भारत के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में फैले हुए हैं और वहां के जैव विविधता और पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए अनुसंधान कार्य करते हैं।
इनका मुख्य कार्य है:
- वनों से संबंधित शोध को बढ़ावा देना
- प्रशिक्षण और शिक्षा के नए कार्यक्रम तैयार करना
- नीति निर्माताओं को वैज्ञानिक सलाह देना
- वनों के संरक्षण, संवर्धन और प्रबंधन में मदद करना
- जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और वन आधारित उद्योगों से जुड़े नए समाधान प्रस्तुत करना
1991: डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा
दिसंबर 1991 में एफआरआई को मानव संसाधन विकास मंत्रालय और UGC की सिफारिश पर डीम्ड विश्वविद्यालय (Deemed University) का दर्जा दिया गया। इसके तहत अब यहां एम.एससी., एम.फिल., और पीएच.डी. जैसे उच्च स्तर के कोर्स संचालित होते हैं।
यह न केवल अनुसंधानकर्ताओं को अवसर देता है, बल्कि भारत और विदेशों से आने वाले छात्रों के लिए वानिकी की दुनिया में प्रवेश का प्रमुख द्वार बन गया है।
🔍 संक्षेप में समझें तो —
एफआरआई अब सिर्फ एक भवन या संस्थान नहीं रहा। यह एक राष्ट्रीय धरोहर है — जिसने भारत को सिर्फ वन विज्ञान में आत्मनिर्भर नहीं बनाया, बल्कि उसे वैश्विक वन मंच पर सम्मान दिलाया। इसकी नींव ब्रिटिश दौर में पड़ी थी, लेकिन इसकी आत्मा आज़ाद भारत की सोच से संचालित होती है।
यह संस्था हमें याद दिलाती है कि अगर विज्ञान और प्रकृति साथ चलें, तो विकास और संरक्षण दोनों संभव हैं।
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एफआरआई की स्थापना कब हुई थी?
एफआरआई की औपचारिक स्थापना 5 जून 1906 को हुई थी
एफआरआई का पुराना नाम क्या था?
पहले इसे इम्पीरियल फॉरेस्ट स्कूल और फिर इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च कॉलेज कहा जाता था
एफआरआई को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा कब मिला?
दिसंबर 1991 में इसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला
एफआरआई की इमारत किस शैली में बनी है?
यह इमारत ग्रीक-रोमन वास्तुशैली में निर्मित है