पहाड़ की प्यारी घुघुती: लोकसंस्कृति, प्रकृति और करुणा का संगम

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Ghughuti Bird – उत्तराखंड, देवभूमि के नाम से विख्यात, अपनी नैसर्गिक सुंदरता, शांत वातावरण और समृद्ध लोकसंस्कृति के लिए जाना जाता है। इस प्रदेश की लोककथाओं, लोकगीतों और जनजीवन में प्रकृति और जीव-जंतुओं का गहरा महत्व रहा है। ऐसी ही एक प्यारी और महत्वपूर्ण पक्षी है घुघुती, जिसे हिंदी और उर्दू में फाख्ता, पंडुक या पडकी के नाम से भी जाना जाता है। कोरोना काल के सन्नाटे में, लेखक ने हरसिंगार की शाख पर बैठी एक घुघुती को देखकर अतीत की स्मृतियों में खो जाते हैं। उत्तराखंड के अपने गांव में, लेखक इन पक्षियों को आंगन और खेतों में अनाज के दाने चुगते हुए देखते थे। उनकी दर्द भरी आवाज, “कुकुकू…कू…कू…कू!”, आज भी उनके कानों में गूंजती है, एक ऐसी धुन जो बचपन की यादों और लोकसंस्कृति की गहरी परतों को उजागर करती है।
उत्तराखंड के लोकगीतों में घुघुती की आवाज को एक विशेष अर्थ दिया गया है। इसे मायके से दूर ब्याही गई बेटी की विरह-वेदना का प्रतीक माना जाता है। यह विरह उस भावनात्मक दूरी को व्यक्त करता है जो एक बेटी विवाह के बाद अपने जन्मस्थान और परिवार से महसूस करती है। लोकगीतों में घुघुती से आग्रह किया जाता है कि वह आम की डाली पर न बैठे और न ही वह दर्द भरी आवाज निकाले, क्योंकि उसकी “घुरु-घुरु” की ध्वनि सुनकर विरह में डूबी बेटी का मन और भी उदास हो जाता है। यह लोकगीत न केवल घुघुती के प्रति स्नेह को दर्शाता है, बल्कि उत्तराखंड की सामाजिक संरचना और भावनात्मक संबंधों की गहराई को भी व्यक्त करता है।

घुघुती, जिसे अंग्रेजी में डव कहा जाता है, कबूतरों की ही बिरादरी का सदस्य है। दोनों को एक ही परिवार ‘कोलंबिडी’ में रखा गया है, लेकिन इनका वंश और प्रजातियां बिल्कुल अलग हैं। आमतौर पर घरों के आसपास पाए जाने वाले कबूतर का वंश ‘कोलंबा’ है, जबकि घुघुती यानी पंडुक का वंश ‘स्ट्रेप्टोपेलिया’ है। प्राचीन यूनान में, डव को प्रेम और सौंदर्य की देवी एफ्रोडाइट का प्रिय और पवित्र पक्षी माना जाता था, जो इसकी कोमल और शांत प्रकृति को दर्शाता है। विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में इस पक्षी के अलग-अलग नाम हैं, जो इसकी व्यापक उपस्थिति और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाते हैं। भोजपुरी में इसे पेढुकी या पेंडुकी, राजस्थानी में डेकण या कमेडी, पंजाबी में घुग्गी, मराठी में कावड़ा और गुजराती में धोल के नाम से जाना जाता है। यह भाषाई विविधता इस पक्षी के साथ लोगों के गहरे जुड़ाव को दर्शाती है।
ढोर फाख्ता: नामकरण, व्यवहार और प्रजनन
ढोर फाख्ता, जिसका वैज्ञानिक नाम ‘स्ट्रेप्टोपेलिया डेकाओक्टो’ है, अपने नामकरण की एक रोचक कहानी समेटे हुए है। इसके वंश का नाम ‘स्ट्रेप्टोपेलिया’ ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसमें ‘स्ट्रेप्टो’ का अर्थ है कॉलर यानी घेरा, और ‘पेलिया’ का अर्थ है डव यानी फाख्ता। इसकी प्रजाति ‘डेकाओक्टो’ भी ग्रीक मूल का है, जहाँ ‘डेका’ का अर्थ दस और ‘ओक्टो’ का अर्थ आठ है, जिसका कुल योग अठारह होता है। इस नाम के पीछे एक प्राचीन यूनानी मिथक छिपा है। कहा जाता है कि प्राचीन यूनान में एक गरीब घरेलू सेविका थी, जिसकी कंजूस मालकिन उसे वेतन के रूप में केवल अठारह सिक्के देती थी। वह इस अन्याय से बहुत दुखी रहती थी। तब देवताओं ने उसकी मालकिन को सबक सिखाने के लिए ‘डव’ की रचना की, जो बार-बार ‘डेकाओक्टो! डेकाओक्टो! कुकु…कू…कू!’ की आवाज निकालता रहता था, मानो उस गरीब सेविका के दुख को व्यक्त कर रहा हो।

यह ढोर फाख्ता मुख्य रूप से रूखे-सूखे और झाड़ियों वाले इलाकों में पाया जाता है, लेकिन इसने शहरी जीवन के शोरगुल को भी अपना लिया है। इसलिए, यह अक्सर घरों के आसपास और बाग-बगियों में दाने चुगता हुआ दिखाई देता है। एकांत में, किसी ऊंची डाल पर बैठकर यह अपनी मधुर “कुकू…कू…कू” की आवाज में गाता हुआ सुना और देखा जा सकता है। इसकी पहचान इसकी गर्दन के पीछे एक काला, आधा घेरा यानी रिंग है, जिसके कारण इसे ‘रिंग डव’ भी कहा जाता है। इसका मुख्य भोजन अनाज और घासों के बीज हैं।
ढोर फाख्ता के व्यवहार में एक विशेष पहलू उसके प्रेम का प्रदर्शन है। प्यार के मौसम में, नर फाख्ता मादा को रिझाने के लिए किसी ऊंची जगह से तेज आवाज में गीत गाता है – “कुकु…कू!” यदि मादा उसकी ओर ध्यान नहीं देती है, तो वह दिन भर रह-रहकर गाता रहता है। इसके अलावा, मादा को चकित करने के लिए, वह तालियों की फट-फट जैसी आवाज निकालते हुए अपने पंखों को फड़फड़ाता है और सीधे ऊपर आसमान में उड़ान भरता है। वहां से, वह गोता लगाकर सर्पिलाकार चक्कर काटता हुआ नीचे आता है, एक अद्भुत हवाई प्रदर्शन करता है।
यदि मादा नर फाख्ता के इस प्रदर्शन से प्रभावित हो जाती है, तो वह उसके साथ जोड़ा बनाती है। प्यार करने के बाद, नर उसे घोंसले के लिए उपयुक्त स्थान दिखाता है। जब मादा को जगह पसंद आ जाती है, तो वह वहां बैठ जाती है। नर फाख्ता पतली डंडियां, घास-फूस, पंख, रुई, ऊन और कभी-कभी तार जैसी चीजें लाकर मादा को देता है। मादा इन सामग्रियों से नीड़ का निर्माण करती है और उसमें दो सफेद अंडे देती है। दिन भर मादा अंडों को सेती है, और शाम होने पर नर उसकी जगह लेता है और रात भर अंडों की देखभाल करता है। बच्चों का पालन-पोषण नर और मादा दोनों मिलकर करते हैं, जो उनके मजबूत पारिवारिक बंधन को दर्शाता है।
छोटा फाख्ता: पहचान, आदतें और नामकरण
ढोर फाख्ता के अलावा, हमारे आसपास एक और छोटा फाख्ता या पंडुक भी अक्सर दिखाई देता है, जिसे लिटिल ब्राउन डव के नाम से भी जाना जाता है। यह आकार में मैना के बराबर होता है और इसे भी रूखे-सूखे और रेगिस्तानी इलाके पसंद हैं। नागफनी के कंटीले झाड़ शायद इसे विशेष रूप से प्रिय हैं। यह भी अक्सर घर-आंगन और बरामदों में चक्कर लगाता है और किसी ऊंची जगह पर बैठकर धीरे-धीरे गाता रहता है। इसकी आवाज हमारी हंसी से मिलती-जुलती होने के कारण इसे ‘लाफिंग डव’ भी कहा जाता है।

इस नन्हे फाख्ते का वैज्ञानिक नामकरण प्रसिद्ध प्रकृति विज्ञानी कार्ल लिनियस ने किया था। उन्होंने इसका नाम ‘स्ट्रेप्टोपेलिया सेनेगालेंसिस’ रखा। माना जाता है कि इस फाख्ते का नमूना उन्हें सेनेगल, पश्चिम अफ्रीका से मिला होगा। यह छोटा फाख्ता मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य-पूर्व और भारतीय उपमहाद्वीप का ही निवासी है। इसे ध्यान से देखने पर इसकी गर्दन के दोनों ओर शतरंज की बिसात जैसी एक विशिष्ट पैटर्न दिखाई देती है, जिसे आमतौर पर लोग ‘फाख्ते की माला’ कहते हैं।
छोटा फाख्ता भी मुख्य रूप से अनाज के दाने और घासों के बीज ही खाता है। प्यार का मौसम आने पर, यह भी मादा को रिझाने के लिए ढोर फाख्ता की तरह उड़ान का करतब दिखाता है। इसके अलावा, यह जमीन पर मादा के सामने झूमता, गाता और उछलता भी है, एक मनोरम प्रेम नृत्य प्रस्तुत करता है। ये भी जोड़े बनाकर रहते हैं और ढोर फाख्ता की तरह ही घोंसला बनाकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, जो उनकी साझा जिम्मेदारी और पारिवारिक जीवन को दर्शाता है।
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली ने फाख्ते की इन दो आम प्रजातियों के अलावा भारत में पाई जाने वाली पांच अन्य प्रजातियों का भी वर्णन किया है। ये हैं: एमराल्ड डव, चित्रोखा फाख्ता यानी स्पाटेड डव, काला फाख्ता यानी ओरिएंटल टर्टल डव, बार्ड कुक्कू डव और रेड कालर्ड डव। इन सभी की अपनी-अपनी अलग शारीरिक विशेषताएं और आवास हैं, जो भारत की समृद्ध जैव विविधता का हिस्सा हैं।
Ghughuti Bird – उत्तराखंड में घुघुती और भिटौली की मार्मिक लोककथा
उत्तराखंड में घुघुती यानी फाख्ते से जुड़ी एक अत्यंत मार्मिक लोककथा प्रचलित है, जो भाई-बहन के अटूट प्रेम और विरह की भावना को व्यक्त करती है। यह कथा कहती है – “भै भुकी, मैं सिती,” जिसका अर्थ है “भाई भूखा रहा, मैं सोती रह गई।” उत्तराखंड में चैत्र माह में एक विशेष परंपरा निभाई जाती है जिसे ‘भिटौली’ कहते हैं। इस दौरान, भाई दूर ब्याही अपनी बहनों को कपड़े, रुपए, पैसे और पारंपरिक पकवानों की भेंट देने के लिए जाते हैं। इस पूरे महीने, बहनें अपने भाइयों का बेसब्री से इंतजार करती हैं।
कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक भाई इसी तरह अपनी बड़ी बहन को भिटौली देने के लिए निकला। नदी, घाटियों, पहाड़ों और घने जंगलों को पार करते हुए, वह अपनी बहन के ससुराल पहुंचा। वहां पहुंचकर उसने देखा कि उसकी प्यारी दीदी गहरी नींद में सोई हुई है। घर में केवल बूढ़ी मां अकेली थी। भाई ने अपनी बहन को जगाना उचित नहीं समझा और चुपचाप भिटौली की टोकरी उसकी चारपाई के पास रखकर रात में ही वापस लौट आया।
सुबह जब बहन की नींद खुली, तो उसने भिटौली देखी। अपने भाई को वहां न पाकर वह व्याकुल हो गई। उसे पता चला कि वह तो रात में ही वापस चला गया था। इस बात से दुखी होकर, बहन रो-रोकर कहने लगी – “भै भुकी, मैं सिती! भै भुकी मैं सिती!” (भाई भूखा रहा और मैं सोती रह गई)। कहते हैं, अपने भाई के प्रति प्रेम और न मिल पाने के दुख में, वह यही कहते-कहते चल बसी और एक घुघुती चिड़िया बन गई। आज भी, उस घुघुती की दर्द भरी आवाज, “कुकु…कू…कू…कू!”, उसी विरह और करुणा की भावना को व्यक्त करती है।
हरसिंगार के पेड़ पर बैठकर अपना दर्द भरा गीत गाकर घुघुती उड़ गई। लेखक आशा करते हैं कि लॉकडाउन के इस एकांत में वह फिर से लौटकर आएगी, अपनी मधुर और मार्मिक आवाज से प्रकृति और मानव हृदय के बीच एक गहरा संबंध स्थापित करेगी। यह घुघुती न केवल एक पक्षी है, बल्कि उत्तराखंड की लोकसंस्कृति, प्रकृति के प्रति प्रेम और मानवीय भावनाओं का एक जीवंत प्रतीक है। इसकी कहानी हमें रिश्तों की गहराई, विरह की पीड़ा और प्रकृति के साथ सामंजस्य की महत्वपूर्ण सीख देती है।
उत्तराखंड में घुघुती पक्षी को और किन नामों से जाना जाता है?
उत्तराखंड में घुघुती पक्षी को हिंदी और उर्दू में फाख्ता, पंडुक या पडकी के नाम से भी जाना जाता है। कुमाउनी और गढ़वाली में इसे घुघुती ही कहते हैं।
ढोर फाख्ता की पहचान क्या है और यह मादा को कैसे रिझाता है?
ढोर फाख्ता की पहचान उसकी गर्दन के पीछे काले रंग का आधा घेरा (रिंग) है। यह मादा को रिझाने के लिए ऊंची जगह से तेज आवाज में गीत गाता है और पंख फड़फड़ाकर आसमान में सर्पिलाकार उड़ान भरता है।
छोटा फाख्ता ‘लाफिंग डव’ क्यों कहलाता है और इसकी गर्दन पर दिखने वाले पैटर्न को क्या कहते हैं?
छोटा फाख्ता अपनी हंसी से मिलती-जुलती आवाज के कारण ‘लाफिंग डव’ कहलाता है। इसकी गर्दन के दोनों ओर शतरंज की बिसात जैसा पैटर्न दिखता है, जिसे आमतौर पर ‘फाख्ते की माला’ कहते हैं।
उत्तराखंड में घुघुती से जुड़ी मार्मिक लोककथा क्या है और यह किस महीने में विशेष महत्व रखती है?
उत्तराखंड में घुघुती से जुड़ी मार्मिक लोककथा “भै भुकी, मैं सिती” (भाई भूखा रहा, मैं सोती रह गई) है, जो भाई-बहन के प्रेम और विरह को दर्शाती है। यह कथा चैत्र महीने में विशेष महत्व रखती है जब ‘भिटौली’ की परंपरा निभाई जाती है।